
मेरे बड़े भाई की बेटी के मुंडन समारोह में जब घर के बड़े सदस्य ‘पितर’ की रस्म कर रहे थे तो मैंने देखा कई युवा (young) लड़के – लड़कियां अपने माता – पिता से सवाल कर रहे थे की ये कौन सी रस्म है? इसका क्या मतलब है। किसी भी माता – पिता ने सही जवाब नहीं दिया।
मुझे ये देख कर बहुत बुरा लगा की, हम अपनी नई पीड़ी को अपनी खूबसूरत संस्कृत के बारे में बता नहीं पा रहे। लेकिन ये जानकार मुझे ख़ुशी हुई की हमारी नई पीड़ी पुरानी परंपरा के बारे में जानने के लिए सवाल करती है, और हर माता पिता और समाज के बड़े लोगों की जिम्मेदारी होती है की वे नई पीड़ी ( new generation ) को सारी जानकारी सही तरीके से दें।
आधुनिक जीवन ( modern lifestyle ) जीना बहुत अच्छा है सभी चाहते हैं की उनके बच्चे आधुनिक बने और तरक्की करें। लेकिन पुरानी परंपरा हमें अपने पूर्वजों ( ancestors ) और अपनी जन्म भूमि ( birthplace/fatherland )से जोड़ती है। हम कितने भी आधुनिक हो जाएँ लेकिन आज भी हम घर से निकलने से पहले, एग्जाम/ इंटरविव या कोई शुभ कार्य करने से पहले अपने ईस्ट देवी – देवताओं के साथ – साथ अपने पूर्वजों से भी आशीर्वाद मांगते हैं।
आप जानते हैं इसका मतलब! इसका मतलब है की हम जाने अनजाने में अपने पूर्वजों और अपने जमीन से जुड़े हैं चाहे हम कितने भी आधुनिक हो जाएँ।
मेरे माता – पिता हमेशा से हमारी संस्कृति और भाषा मुझे और मेरे दोनों भाइयों को बताते और सिखाते आये हैं, इसलिए मैंने अपनी माँ से ‘पितर’ परंपरा के बारे में जानकारी ली है, जितना भी उन्होंने मुझे बताया है आपको शेयर कर रही हूँ। इसका इतिहास बहुत लम्बा है लेकिन गावों में पहले के बुजुर्ग अब नहीं रहे इसलिए इसके पूरे इतिहास के बारे में बता पाना मेरी माँ के लिए भी मुश्किल था। फिर भी उन्हें जितना मालूम था इस आर्टिकल को लिखने में उन्होंने काफी मदद की है।
मैं और इसके बारे में जानकारी अर्जित करने की कोशिश करुँगी और इस आर्टिकल में अपडेट करती रहूंगी।
Contents-
1. परिचय 2.क्या है पितर परम्परा? क्यों मानी जाती है। 3. पितर के चुनाव में उपयोग में ली जाने वाली वस्तुएं 4. पूरी प्रक्रिया 5. किन – किन आदिवासी समुदायों में मानी जाती है? |
1.परिचय –
मुंडन/ छट्ठी के बारे में आप सब जानते हैं, लेकिन क्या आपने ‘पितर’ के बारे में सुना है? यह एक आदिवासी परंपरा है। यह रस्म भी मुंडन के समय होती हैं। आइये हम जानते हैं मुंडन/ छट्ठी के दिन कौन -कौन सी रस्म होती हैं।
मुंडन कराना या जिसे झालर उतारना भी कहते हैं नवजात शिशु ( newborn baby ) के जन्म के छटवें दिन बाद या नाल या नाभि ( navel ) झड़ने के बाद निभाया जाने वाला रस्म ( Ceremony ) है दूसरे शब्दों में इसे छूत उतरना भी कहते हैं। इस समारोह में शिशु के सिर के बाल का मुंडन कराया जाता है, इसे झालर उतारना कहा जाता है। इसके लिए रिश्ते में फूफा या मामा या दादा या नाना शिशु के बाल को उतारते हैं। आजकल तो कई लोग नाई के द्वारा भी बाल उतरवा लेते हैंl
जब बाल उतरा जाता है तो शिशु की बुआ अपने आँचल में कटे हुए बाल को झोंकती है। यदि उस समय बुआ ना हो तो यह जरुरी नहीं है। साल वृक्ष के दो पत्तों का दोना सील कर, बिना मोड सिला जाता है जिसे ‘ठढ़िया दोना’ कहा जाता है, उसमे आधा पानी भर कर कटे हुए बाल को डाला जाता है, दूसरा दोना भी उसी प्रकार सिला जाता है। उसमे हल्दी पाउडर को सरसों के तेल में भिगा कर रखा जाता है जिसे यदि शिशु को छुरे या ब्लेड के द्वारा चोट लग जाने पर उस स्थान पर लगाया जाता है, क्यूंकि हल्दी को शुद्धिकरण का प्रतीक माना जाता है और यह एंटीसेप्टिक ( antiseptic ) का काम करता है।
इसके बाद झालर ( बाल ) को निकट में या कहीं भी बहती हुई जलधारा या झरने में दोनों को, दोना सहित बहा दिया जाता है। अब नाभि जो गिर कर अलग होता है उसे घर के मुख्य द्वार के पास छोटा सा गढ्ढा खोद कर मिटटी से दबा दिया जाता है। फिर शिशु को उबटन लगाकर नहलाया जाता है।
2.क्या है पितर परम्परा? क्यों मानी जाती है।
यह उरांव/कुड़ुख ( Oraon/Kurukh ) जनजाति की एक परंपरा है जिसे कई वर्षों से शिशु के जन्म के बाद एक संस्कार ( ritual ) के रूप में निभाया जाता है। इसे कई और जनजातियों में भी माना जाता है। यह एक जनजातीय/आदिवासी संस्कृति की परंपरा है।
शिशु पर बाल्यावस्था में या जीवनपर्यंत्र तक उसके स्वाभाव, बात – व्यवहार, खाने- पीने, सोने- जागने या कोई भी आदत अपने पितर के आदत के अनुसार शिशु के जीवन में देखा जाता है।
3. पितर के चुनाव में उपयोग में ली जाने वाली वस्तुएं –
झालर/ बाल उतरने की रस्म पूरा होने के बाद शिशु के पितर का चुनाव करते हैं। इसके लिए निम्नलिखित सामग्रियां प्रयोग में लाई जातीं हैं –
1. कांसे की थाली

2. साफ़ पानी
3. लम्बे दाने वाला साबूत धान

4. दूब घांस ( तजा,हरा )

5. साल के पत्ते से ठढ़िया ( बिना मोंडे ) सिला हुआ दोना


6. हल्दी

4. पूरी प्रक्रिया
इसके लिये शांत वातावरण याने जहाँ लोगों का आना – जाना ना हो, हवा का बहाव या पंखा ना हो ऐसी जगह पर यह रस्म किया जाता है। कैसे की थाली में पानी भरा जाता है जो थाली में 1 इंच आधा हो, थाली के चारो ओर गांव के पंच गण घेरा बना कर बैठते हैं और थाली में नजर टिकाये रहते हैं की किसी से कोई गलती हो जाये तो दूसरा उसे सुधार सके।
सबकी नजर थाली पर ही होना चाहिए यदि किसी को खांसी भी आ जाये तो उठकर वहां से दूर चला जाये। वहां पर मक्खी भी आ जाये तो उसे हटाने के लिए रुमाल या गमछे का प्रयोग न किया जाये इस बात का ख्याल रखा जाता है। वहां थाली बजाना भी वर्जित है क्यूंकि उसमे से हवा निकलती है जो थाली के पानी को हिला सकती है या प्रभावित कर सकती है।
1. सबसे पहले धान का छिलका सावधानी पूर्वक उतारकर ( चावल टूटना नहीं चाहिए ) ईश्वर ( God ) का नाम लेकर, पहला चावल ईश्वर के नाम से थाली के पानी में डाला जाता है। चावल को थाली के किनारे से पानी को बिना स्पर्श किये सावधानी पूर्वक धीरे से डाला जाता है जिससे पानी ना हिले।
2. इसके बाद दूसरा चावल जिसे तुरंत धान को छील कर पानी में शिशु ( newborn baby ) के नाम से उतरा जाता है। ध्यान रहे की चावल पानी में भींगने ना पाए और डूबने ना पाए, चावल पानी में तैरता हुआ रहना चाहिए।
3. तीसरा चावल का दाना पांचों के नाम से डाला जाता है यह भी तैरता हुआ रहना चाहिए।
4. अब चौथा चावल पितर के नाम से याने शिशु के दादा जी के नाम से डाला जाता है। ध्यान रहे चारो चावल पानी में न डूबे और कौन सा चावल किसके नाम पर है।
5. चावल गतिमान होते हुए ( तैरते हुए ) पंच के साथ जुड़कर और पितर के साथ जुड़ कर ईश्वर के साथ जुड़ जाते है हैं याने चरों चावल बिना हवा के तैरते हुए एक साथ जुड़ता है तो समझ लिया जाता है की शिशु अपने दादा जी का पितर है। यदि चरों में से कोई एक नहीं जुड़ता है तो पितर के नाम पर दूसरा याने दादा जी और दादी एक साथ जुड़ जाते हैं तो संयुक्त रूप से दादा – दादी का पितर समझा जाता है।

6. यदि इनमें से कोई ना जुड़े तो नाना जी के नाम से डाला जाता है अगर नाना ना जुड़े तो नानी के नाम का चावल डाला जाता है। इसमें भी संयुक्त रूप से जुड़ सकते हैं।
7. यदि इन चरों में से कोई शिशु के साथ ना जुड़े तो शिशु के रंगरूप या शारीरिक हरकत या संरचना या शरीर पर कोई चिन्ह ( दाग – धब्बा ) के आधार पर पितर का सम्बन्ध परिवार के दुसरे व्यक्ति याने बाद वाली पीढ़ी – चाचा, बुआ, मामा, मौसी के नाम पर चावल डाला जाता है।
8. शिशु के रंग-रूप, मुख मंडल, शारीरिक विकृति या स्वाभाव में समानता ( रोना या शारीरिक हरकत ) आदि के आधार पर परिवार के किसी एक व्यक्ति के साथ जोड़ कर देखा जाता है। इस विधि से पितर का चुनाव करने में कोई दिक्कत नहीं होती है क्यूंकि शिशु जन्म से ही अपने पूर्वजों के लक्षण को किसी ना किसी रूप में लेकर आता है, इसी के आधार पर पितर का चुनाव होता है। ऐसी स्थिति में समय बहुत ही लंबा होता है, कभी – कभी समय तीन घंटे तक भी हो जाता है।
कभी – कभी जल्दबाजी में या किसी कारण वश पितर का गलत चुनाव हो जाता है ऐसी स्थिति में शिशु अपनी नाराजगी के रूप में विरोध को दर्शाता है जैसे – जरुरत से ज्यादा रोना, बिना असुविधा या परेशानी के रोना,चिड़चिड़ापन या आस्वस्थ रहना, दूध न पीना आदि।
इसका संकेत कभी ना कभी या तुरंत बाद शिशु के माता – पिता को या घर के मुखिया या घर के किसी सदस्य को सपने में या किसी ना किसी रूप में मिल जाता है। इसका खामियाजा पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है, इसलिए दुबारा पितर का चुनाव करा कर सही पितर का चुनाव करा कर सही पितर से जोड़ा जाता है। तब शिशु भी शांत होता है।
5. किन – किन आदिवासी समुदायों में मानी जाती है?
यह एक आदिवासी/ जनजातीय ( Tribal ) परंपरा है, जो भारत मध्य भारत के कई जनजातियों में मानी जाती है।
FAQ –
Q.- क्या है पितर परम्परा? क्यों मानी जाती है।
Ans.- शिशु पर बाल्यावस्था में या जीवनपर्यंत्र तक उसके स्वाभाव, बात – व्यवहार, खाने- पीने, सोने- जागने या कोई भी आदत अपने पितर के आदत के अनुसार शिशु के जीवन में देखा जाता है।
Q. पितर के चुनाव में किस – किस के नाम का चावल पानी में डाला जाता है?
Ans.- सबसे पहले ईश्वर के नाम का और और शिशु के नाम का फिर पंच के नाम का, दादा – दादी, नाना – नानी फिर नई पीड़ी में से किसी के नाम का जैसे – चाचा, बुआ, मामा, मौसी के नाम का आदि।
Q. पितर चुनाव प्रक्रिया में किन – किन सामग्रियों की आवश्यकता होती है?
Ans. उपयोग में लाई जाने वाली वस्तएं – कांसे की थाली, साफ़ पानी, लम्बे दाने वाला साबूत धान, दूब घांस ( तजा,हरा ),साल के पत्ते से ठढ़िया ( बिना मोंडे ) सिला हुआ दोना, हल्दी।
Q. पितर का चुनाव गलत हो जाये तो इसका क्या परिणाम होता है?
Ans. कभी – कभी जल्दबाजी में या किसी कारण वश पितर का गलत चुनाव हो जाता है ऐसी स्थिति में शिशु अपनी नाराजगी के रूप में विरोध को दर्शाता है जैसे – जरुरत से ज्यादा रोना, बिना असुविधा या परेशानी के रोना,चिड़चिड़ापन या आस्वस्थ रहना, दूध न पीना आदि।
Q. यदि पितर का चुनाव गलत हो जाए तो इस स्थिति में क्या किया जाता है?
Ans.- इस स्थिति में कुछ दिनों बाद फिर से पितर का चुनाव किया जाता है।
Q.- किन – किन आदिवासी समुदायों में मानी जाती है?
Ans.- यह एक आदिवासी/ जनजातीय ( Tribal ) परंपरा है, जो भारत मध्य भारत के कई जनजातियों में मानी जाती है।
Note- ये सभी जानकारियाँ(Information) मैंने अपनी माँ से ली है वे आदिवासी संस्कृति के बारे में काफी जानकारी रखती हैं। वे खुद गावों के लोगों से बात कर जानकारी लेती रहती हैं और कुछ पुरानी और अच्छी किताबें पड़ती रहती हैं, अगर कोइ जानकारी गलत लगे तो आप हमें कमेंट(Comment) कर सकते हैं,हम इसे अपडेट करते रहेंगे। आपको हमारी आर्टिकल अच्छी लगती हैं तो आगे भी पड़ते रहें और इसे शेयर(share) करें